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Friday, May 22, 2020

UNEMPLOYMENT(PART-I)



UNEMPLOYMENT(PART-I)


मैं एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार का हुँ और भारत का नागरिक हूँ , शिक्षित हुँ  ,और जीवन की मूल जरूरतों के बारे में जानता भी हुँ ,
भोजन , वस्त्र और एक आश्रय !!
अगर बाकी भौतिक चीजों को छोड़ दें तो हमारी मूल जरूरत भी यही तीन हैं। इन तीनो की पूर्ति की जिम्मेदारी परिवार की होती है। लेकिन कब तक...... !!! तब तक ,जब तक की हम अपने पैरों पर न खड़े हो जाएँ। पैरों पर खड़ा होने का मतलब क्या है ?
रोजगार....!
आप  सोच रहे होंगे इसमें नया क्या है ? इस पर तो कई चीजें लिखी ,कही  और सुनी जा चुकी हैं। मैं भी यही कहना चाहता हुँ। सचमुच ! ये बिल्कुल भी नयी चीज नहीं है। आजादी के पहले की बात छोड़ दें तो ,जब से देश आजाद हुआ है हमारे देश की वस्तुस्थिति इस सन्दर्भ में बदली ही नहीं है। तभी तो उस समय के प्रख्यात कवियों में से एक नागार्जुन जी ने कहा है ....
                             देश हमारा भूखा- नंगा , घायल है बेकारी से ,
                         मिले न रोटी -रोजी भर के ,दर दर बने भिखारी से 
शासन के भ्र्ष्टाचारी तंत्रों से ,जिसके कारण पंचवर्षीय योजनाएँ भी धरातल पर कभी भी नहीं उतर सके ,और सरकारी नीतियों ने हमें कहीं का भी नहीं छोड़ा ,परिणामस्वरूप स्थितियाँ जस की तस बनी हुई है। लेकिन मेरा मतलब सिर्फ सरकारी तंत्रों में रोजगार से नहीं है बल्कि किसी भी क्षेत्र में रोजगार का कोई न कोई स्वरुप सृजित कर रोजगार के मौके उपलब्ध करने और कराने से  भी है। क्या हम या हमारा तंत्र ऐसा कर पा रहा है ? शायद नहीं।
क्या गत सरकारें इसके लिए ईमानदार थी ? और अगर थी तो बेरोजगारी के आंकड़े इतने भयावह क्युं हैं ?आज़ादी के ठीक बाद के लेखकों और कविओं को जब भी मैं पढता हूँ और उसका आकलन करता हूँ तो यही पाता हूँ की बेरोजगारी तो पहले भी थी और चरमसीमा पर थी और वर्तमान में भी चरमोत्कर्ष पर है। 

1 comment:

  1. बिल्कुल सही आज बेरोजगारी सही मायने में अपने चरम पर है।

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