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Thursday, June 18, 2020

rani lakshmibai :रानी लक्ष्मीबाई ;पुण्य जयंती विशेष

रानी लक्ष्मीबाई ;पुण्य जयंती विशेष 

रानी लक्ष्मीबाई मराठा प्रदेश के झाँसी राज्य की रानी थी। अपनी वीरता और साहस के लिए ये शहीद वीरांगना हमलोगो के लिए एक प्रेरणास्रोत है। लक्ष्मीबाई के किस्से उनकी वीरता और रोमांच से भरे हैं। इनकी वीरता ने भारत देश के लिए एक नए इतिहास का सृजन किया। आज उनकी पुण्य जयंती है। सिर्फ 29 वर्ष की छोटी आयु में ही अंग्रेजों से युद्ध करते हुए रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुई। सिर पर तलवार की वार से लक्ष्मीबाई की मृत्यु लड़ते -लड़ते हुई। भारत देश इनकी शहादत का हमेशा ही  ऋणी रहेगा। 

नाम                         मणिकर्णिका  ताम्बे  , लक्ष्मीबाई  नेवलेकर , मनु 
जन्म                       1828 
मृत्यु                        1858
पिता                         मोरोपंत  ताम्बे
माता                       भागीरथी  बाई सापरे 
पति                         गंगाधर राव नेवलेकर 
संतान                      दामोदर  राव,  आनंद  राव (दत्तक पुत्र)
घराना                     मराठा  साम्राज्य
उल्लेखनीय1857 का स्वतंत्रता संग्राम 

अन्य जानकारियां 


  • जन्म स्थान - वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत
  • विवाह तिथि - 19 मई 1842
  • गृहनगर - विठुर, जिला- कन्नपुर (अब कानपुर), उत्तर प्रदेश, भारत
  • धर्म - हिन्दू 
  • अभिरुचि - घुड़सवारी करना, तीरंदाज़ी करना
  • मृत्यु तिथि - 18 जून 1858 
  • मृत्यु स्थान - कोटा की सराय, ग्वालियर, 
  • आयु - (मृत्यु के समय) -29 वर्ष 
  • मृत्यु - कारण - शहीद,सिर पर तलवार के वार से
  • लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत मराठा बाजीराव की सेवा में थे।चंचल और सुन्दर मनु को सब लोग उसे प्यार से "छबीलीकहकर बुलाते थे ।लक्ष्मीबाई ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्र की शिक्षा भी ली।उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ।   
  • वो झाँसी की रानी बनीं।
  • विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। 
  • सन् 1851 में  लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। 
  • परन्तु मात्र चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी।
  • तब राजा गंगाधर राव ने एक  पुत्र को गोद लिया  
  • पुत्र गोद लेने के बाद 1853 में गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। 
  • दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया। 


 राजा गंगाधर की मृत्यु के बाद ब्रिटिश शाषकों ने  बालक दामोदर राव के ख़िलाफ़ अदालत में मुक़दमा दायर कर दिया।
 राज्य का खजाना जब्त कर  लिया तब  रानी को झाँसी का क़िला छोड़कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा।
पर रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होनें  झाँसी राज्य की रक्षा करने का करने का निर्णय ले लिया था। 
1857 के संग्राम का झाँसी एक प्रमुख केन्द्र बन गया।
 रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा के लिए  और एक  सेना का गठन प्रारम्भ किया।
इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया।
जनता ने भी इस संग्राम में लक्ष्मीबाई का भरपूर सहयोग दिया। 
1857 के सितम्बर तथा अक्टूबर के महीनों में पड़ोसी राज्य ओरछा और दतिया के राजा ने झाँसी पर
आक्रमण किया जिसे लक्ष्मीबाई सफलतापूर्वक विफल कर दिया।
1858 के जनवरी माह में ब्रिटिश सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को
 घेर लिया। दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद ब्रिटिशों  ने शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया।
लेकिन लक्ष्मीबाई और  दामोदर राव अंग्रेज़ों से बच कर  निकलने में सफल रहे 
इसके बाद लक्ष्मीबाई कालपी पहुँच कर तात्या टोपे से मिली।
तात्या टोपे और लक्ष्मी बाई  की संयुक्त सेना ने  ग्वालियर के एक क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। 
लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रितानी जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरताचालाकी
और दृढ़ता के लिये तो प्रसिद्ध थी हीसाथ ही साथ सबसे अधिक ख़तरनाक भी थी
 कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स : जिसने रानी लक्ष्मीबाई को लड़ाई के मैदान में लड़ते देखा।
और बताया की कैसे रानी लक्ष्मीबाई ने  घोड़े की रस्सी अपने दाँतों से दबाई हुई थी और
 दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं तथा  एक साथ हर तरफ  वार कर रही थीं।
वो बहुत ही साहसी और विध्वंसक दिख रहीं थीं। 
 एक और अंग्रेज़ जॉन लैंग ने रानी लक्ष्मीबाई को नज़दीक से देखा था और लक्ष्मीबाई की
 कुछ विस्मयकारी बातों की प्रशंसनीय चर्चा की।
रेनर जेरॉस्च ने  भी जॉन लैंग को  बताया, 'रानी मध्यम कद की तगड़ी महिला थीं  .
अपनी युवावस्था में वो और अधिक सुन्दर रही होगी।  लेकिन अब भी उनके चेहरे का आकर्षण कम नहीं था.
 उनका रंग बहुत साफ़ नहीं था। उन्होंने एक भी ज़ेवर नहीं पहन रखा था। सिर्फ सोने की बाली जरूर थी।
उन्होंने सफ़ेद मलमल की साड़ी पहन रखी थीउनकी आवाज़ थोड़ी भरी थी ,लेकिन एक साहसी औरत थी। 
 हेनरी सिलवेस्टर ने अपनी किताब 'रिकलेक्शंस ऑफ़  कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडियामें लिखा,
 "अचानक रानी ज़ोर से चिल्लाई, 'मेरे पीछे आओ ,और तब क्षण भर में ही पंद्रह घुड़सवारों का एक जत्था उनके
पीछे हो लिया।  वो लड़ाई के मैदान से इतनी तेज-तर्रार थी  कि अंग्रेज़ सैनिकों को इसे समझ पाने में कुछ समय
लग गया।  अचानक रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, 'दैट्स दि रानी ऑफ़ झाँसीकैच हर.'" कुछेक मील जाने के बाद एक अंग्रेज़ सैनिक ने उनके सीने में संगीन
 भोंक दी थीवो तेज़ी से मुड़ीं और अपने ऊपर हमला करने वाले पर पूरी ताकत से तलवार लेकर टूट पड़ीं,
लेकिन तलवार का एक वार उनके सिर पर बहुत तेजी से लगा। 
"अंग्रेज़ों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए." ये कहते हुए वो वीरगति को प्राप्त हो गयीं।
वहां पर मौजूद लक्ष्मीबाई सैनिकों ने  रानी के पार्थिव शरीर को आग लगा दी थी। 
ऐसी वीरांगनाएं विरले ही जन्म लेती हैं ,हमारा सौभाग्य है की हम और हमारा देश इसके साक्षी हैं। 































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